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Tuesday, October 20, 2020

बुनकर, लोहा बनाने वाले और फैक्ट्री मालिक

 कक्षा 8 (सामाजिक विज्ञान) प्रश्न उत्तर

7.बुनकर, लोहा बनाने वाले और फैक्ट्री मालिक


(इस अध्याय के video lesson /explanation देखने के लिए यहां क्लिक करें 👉 Part 1 Part 2 Part 3 Part 4 )


पाठ का संक्षिप्त सार


*ईस्ट इंडिया कंपनी 18 वीं सदी के अंत में भारत से चीजें खरीदी थी और उन्हें इंग्लैंड तथा यूरोप के अन्य देशों में ले जाकर भारी मुनाफे पर बेच देती थी।

*18वीं शताब्दी में भारत का कपड़ा उद्योग - पूरी दुनिया में विख्यात भारतीय कारीगर लंबे समय से अपनी गुणवत्ता और बारीक कारीगरी के लिए संसार में प्रसिद्ध थे। दक्षिण पूर्वी एशिया (जैसे जावा सुमात्रा और पेनांग) तथा पश्चिमी एवं मध्य एशिया में इन कपड़ों का भारी व्यापार था।

*पटोला बुनाई सूरत अहमदाबाद और पाटन में होती थी। इंडोनेशिया में इस बुनाई का भारी बाजार था। वहां यह स्थानीय बुनाई परंपरा का हिस्सा बन गई थी।

*जामदानी एक तरह का बारिक मलमल होता है जिस पर करघे में सजावटी चिन्ह बुने जाते हैं। इन प्रायः स्लेटी और सफेद होता है।

* छींट अथवा शिंट्ज-यूरोपीय व्यापारी कंपनी को थोक में जिन कपड़ों का आर्डर देते थे उनमें छापेदार सूती कपड़े जिन्हें छींट या अंग्रेजी में शिंट्ज भी कहते हैं। हमारे यहां छींट रंगीन फूल पत्तियों वाले छोटे छापे के कपड़े को कहा जाता है।

*एक ऐसी मशीन जिससे एक कामगार एक साथ कई तकलीयों पर काम कर सकता था उसे स्पिनिंग जैनी कहते थे।

* छींट-के प्रयोग पर पाबंदी लगाने के लिए एक कानून पारित कर दिया गया उसे कैलिको अधिनियम कहा जाता था।

*सूती कपड़ा मिलों का उदय भारत में पहली सूती कपड़ा मिल 18 से 54 में मुंबई में स्थापित हुई। यह कतई मिलती। 19 00 तक मुंबई में 84 कपड़ा मिले स्थापित हो चुकी थी।

*स्टील तलवारे तथा अन्य हथियार बनाने के लिए दक्षिण भारत में वुट्ज स्टील का प्रयोग किया जाता था।

*जमशेदजी टाटा ने भारत में टिस्को की स्थापना की जो आगे चलकर लोहा इस्पात उद्योग की नीवं बना।


अभ्यास के प्रश्न


फिर से याद करें


प्रश्न 1.यूरोप में किस तरह के कपड़े की भारी मांग थी?

उत्तर: भारत के बारीक तथा छापे दर सूती कपड़े की भारी मांग थी।


प्रश्न 2.जामदानी क्या है?

उत्तर :जामदानी एक प्रकार का बारीक मलमल होता है जिसके ऊपर हथकरघा पर सुंदर नमूने उकेरे जाते थे। यह प्राय: स्लेटी तथा सफेद रंग के होते हैं। इसके लिए प्राय: सूती तथा सोने के धागों का प्रयोग किया जाता था।


प्रश्न 3.बंडाना क्या है?

उत्तर: बंडाना छापेदार सूती कपड़ा होता है। बंडाना शब्द का प्रयोग गले या सिर पर बांधने वाले चटक रंग के छापेदार गुलूबंद के लिए किया जाता है। यह शब्द हिंदी के 'बांधना' शब्द से निकला है। इस श्रेणी में चटक रंगों वाले ऐसे बहुत से कपड़े आते थे जिसे बांधने और रंगसाजी की विधियों से ही बनाया जाता था। बंडाना शैली के कपड़े मुख्यता राजस्थान और गुजरात में बनाए जाते थे।


प्रश्न 4.अगरिया कौन होते हैं?

उत्तर: अगरिया छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव में रहने वाले एक समुदाय के लोग थे। वह लोहा अयस्क इकट्ठा करते थे। उन्होंने दोराबजी टाटा को उत्तम लौह अयस्क के भंडारों की जानकारी दी थी।


प्रश्न 5 रिक्त स्थान भरे-

क) अंग्रेजी का शिंट्ज शब्द हिंदी के --- शब्द से निकला।

ख) टीपू की तलवार -- स्टील से बनी थी।

ग) भारत का कपड़ा निर्यात --- सदी में गिरने लगा।

उत्तर: क) छींट ख) वुट्ज ग)19 वीं


आइए विचार


प्रश्न 6.विभिन्न कपड़ों के नामों से उनके इतिहासों के बारे में क्या पता चलता है?

उत्तर: विभिन्न कपड़ों के नामों का उनके इतिहासों से गहरा संबंध है। इस बारे में निम्नलिखित उदाहरण दिए जा सकते हैं-

1.यूरोप के व्यापारियों ने भारत से आने वाला बारिक सूती कपड़ा सबसे पहले वर्तमान इराक के मोसुल शहर में अरब के व्यापारियों के पास देखा था। मोसुल के नाम पर वह बारीक बुनाई वाले सभी कपड़ों को मस्लीन (मलमल) कहने लगे। शीघ्र ही यह शब्द खूब प्रचलित हो गया।

2.मसालों की तलाश में भारत में आने वाले पुर्तगालियों ने दक्षिण-पश्चिम भारत में केरल के तट पर स्थित कालीकट में डेरा डाला। यहां से मसालों के साथ-साथ सूती कपड़ा भी लेते गए। कालीकट से निकले शब्द के आधार पर इस कपड़े को कैलिको कहने लगे। बाद में हर तरह के सूती कपड़े को कैलिको ही कहा जाने लगा।

3.छिंट शब्द का भी अपना इतिहास है। 1730 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकाता स्थित अपने नुमाइंदों के पास कपड़ों का एक आर्डर भेजा था। उनमें छापेदार सूती कपड़े भी शामिल थे। उन्हें यह व्यापारी शिंट्ज, कोसा (या खस्सा) और बंडाना कहते थे। अंग्रेजी का शिंट्ज शब्द यह हिंदी के 'छींट' शब्द से निकला है। हमारे यहां छींट रंगीन फूल पत्तियों वाले छोटे छापे के कपड़ों को कहा जाता है। 1680 के दशक तक इंग्लैंड और यूरोप में छापेदार भारतीय सूती कपड़े की जबरदस्त मांग थी। आकर्षक फूल पत्तियों, बारिक रेशे और कम मूल्य के कारण भारतीय कपड़ा बहुत ही लोकप्रिय था। इंग्लैंड के धनी लोग ही नहीं बल्कि स्वयं महारानी भी भारतीय कपड़ों से बने परिधान पहनती थी।

 बंडाना शब्द का प्रयोग गले या सिर पर पहनने वाले तीखे रंग के छापेदार गुलूबंद के लिए किया जाता है। या शब्द हिंदी के 'बांधना' शब्द से निकला है। इस श्रेणी में ऐसे बहुत से कपड़े आते थे जिन्हें बांधने और रंगसाजी की विधियों से ही बनाया जाता था।

4.ऑर्डर में कुछ अन्य कपड़ों का भी उल्लेख है जिनका नाम उनके जन्म स्थान के अनुसार लिखा गया था। कासिम बाजार, पटना, कोलकाता, उड़ीसा चारपुर आदि। इन शब्दों के व्यापक प्रयोग से पता चलता है कि संसार के विभिन्न भागों में भारतीय कपड़े कितने लोकप्रिय थे।


प्रश्न 7. इंग्लैंड के ऊन और रेशम उत्पादकों ने 18वीं सदी की शुरुआत में भारत से आयात होने वाले कपड़े का विरोध क्यों किया था?

उत्तर: 

1.18 वीं सदी की शुरूआत तक इंग्लैंड में भारतीय कपड़े की लोकप्रियता बहुत अधिक बढ़ चुकी थी। 

2.इंग्लैंड के अधिकतर लोग, यहां तक कि स्वयं महारानी, भारतीय कपड़े से बने वस्त्र पहनते थे। 

3.उस समय इंग्लैंड में नए-नए कपड़ा कारखाने खुल रहे थे। 

4.वहां के ऊन तथा रेशम उत्पादक भारतीय वस्तुओं की लोकप्रियता को देखकर बेचैन थे। उस वे चाहते थे कि पूरे इंग्लैंड में उन्हीं के कारखानों में बना कपड़ा ही बिके। 

इसी कारण उन्होंने भारत से आयात होने वाले कपड़े का विरोध किया और इस आयात पर रोक लगाने की मांग की।


प्रश्न 8. ब्रिटेन में कपास उद्योग के विकास से भारत के कपड़ा उत्पादकों पर किस तरह के प्रभाव पड़े?

उत्तर: ब्रिटेन में कपास उद्योग के विकास से भारत के कपड़ा उत्पादकों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े--

1.विदेशी कपड़े से मुकाबला -अब भारतीय कपड़े को यूरोप तथा अमेरिका के बाजारों में ब्रिटिश कारखानों में बने कपड़ों से मुकाबला करना पड़ता था।

2.निर्यात में कमी- भारत से इंग्लैंड को कपड़े का निर्यात कठिन होता जा रहा था क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने भारत से आने वाले कपड़े पर भारी सीमा शुल्क लगा दिए थे।

3.बेरोजगारी इंग्लैंड में बने सूती कपड़े ने 19वीं शताब्दी के आरंभ तक भारतीय कपड़े को अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप के परंपरागत बाजारों से बाहर कर दिया था। परिणाम स्वरूप हमारे देश के हजारों बुनकर बेरोजगार हो गए। सबसे बुरी मार बंगाल के बुनकरों पर पड़ी


प्रश्न 9.19वीं सदी में भारतीय लोहा प्रगलन उद्योग का पतन क्यों हुआ?

उत्तर: 19वीं सदी में निम्नलिखित कारणों से भारतीय लोहा प्रगलन उद्योग का पतन हो गया-

1.आरक्षित वनों में लोगों के प्रवेश पर रोक- नए वन कानूनों के अंतर्गत भारत की ब्रिटिश सरकार ने आरक्षित वनों में लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दी। इससे लोहा बनाने वाले कारीगरों को कोयले के लिए लकड़ी मिलनी कठिन हो गई। उनके लिए लौह अयस्क के स्त्रोत भी बंद हो गए। कुछ कारीगर चोरी-छिपे लकड़ी इकट्ठे कर लाते थे। परंतु हमेशा के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने अपना पेशा छोड़ दिया और वे आजीविका के नए साधन ढूंढने लगे।

2.भारी कर- कुछ क्षेत्रों में सरकार ने लोगों को जंगलों में प्रवेश की अनुमति दे दी थी। परंतु लोहा प्रगलन को (लोहा पिघलाने वाले कारीगर को) अपने प्रत्येक भट्टी के लिए वन विभाग को भारी कर चुकाने पड़ते थे। इसमें उनकी आय गिर जाती थी। इसलिए उन्होंने अपना काम बंद कर दिया।


प्रश्न 10.भारतीय वस्त्र उद्योग को अपने शुरुआती सालों में किन समस्याओं से जूझना पड़ा?

उत्तर: भारतीय वस्त्र उद्योग को शुरुआती सालों में कई समस्याओं से जूझना पड़ा।

1.सबसे बड़ी समस्या तो यह थी कि इस उद्योग को ब्रिटेन से आए सस्ते कपड़ों का मुकाबला करना पड़ता था।

2.अधिकतर देशों में सरकारें आयात होने वाली वस्तुओं पर सीमा शुल्क लगाकर अपने देश में औद्योगिककरण को बढ़ावा देती थी। इससे प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जाती थी और संबंधित देश के नए उद्योगों को संरक्षण मिलता था।

3.परंतु भारत की अंग्रेजी सरकार ने भारत में नव स्थापित वस्त्र उद्योग को इस तरह की सुरक्षा प्रदान नहीं की। परिणाम स्वरूप भारत में वस्त्र उद्योग के विकास की गति मंद रही।


प्रश्न 11.पहले महायुद्ध के दौरान अपना स्टील (इस्पात) उत्पादन बढ़ाने में टिस्को को किस बात से मदद मिली?

उत्तर:

1. टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी में 1912 से स्टील का उत्पादन होने लगा था। उस समय तक भारत में रेलवे के विस्तार के कारण रेल पटरियों के लिए ब्रिटेन से स्टील का आयात किया जाता था। 

2.परंतु 1914 में पहला महायुद्ध छिड गया। इससे टिस्को को अपना स्टील उत्पादन बढ़ाने में काफी मदद मिली। 

3.इसका कारण यह था कि अब ब्रिटेन में बनने वाले इस्पात की खपत यूरोप में युद्ध संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने में होने लगी। इससे भारत आने वाले ब्रिटिश स्टील की मात्रा में भारी गिरावट आई और भारतीय रेलवे रेल की पटरियों के लिए टिस्को पर आश्रित हो गया। 

4.जब युद्ध लंबा खिंच गया तो टिस्को को युद्ध के लिए गोलो के खोल तथा रेल गाड़ियों के पहिए बनाने का काम भी सौंप दिया गया। 

5.1919 तक स्थिति यह हो गई कि टिस्को में बनने वाले 90% स्टील को औपनिवेशिक सरकार ही खरीद लेती थी। समय बीतने के साथ-साथ टिस्को समस्त ब्रिटिश साम्राज्य में इस्पात का सबसे बड़ा कारखाना बन गया।



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