पानीपत युद्ध टाल सकते थे सदाशिव राव?
सदाशिवराव भाउ की पहचान इतिहास में एक ऐसे शख़्स के तौर पर है जिन्होंने आधुनिक युद्ध की शुरुआत की.
उन्होंने राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाया और अपनी मातृभूमि से कई किलोमीटर दूर पानीपत में जाकर युद्ध लड़ा, जिसमें उन्होंने असीम पराक्रम का प्रदर्शन किया.
पानीपत के तीसरे युद्ध में अफ़ग़ान सम्राट अहमद शाह अब्दाली ने मराठा फ़ौज को हराया था. उस युद्ध में कई मराठा सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. इस हार ने मराठा सामराज्य के तेज़ी से बढ़ते वर्चस्व को भी चुनौती दी थी.
चिमाजी अप्पा के बेटे सदाशिव राव बमुश्किल 30 साल की ज़िंदगी जी सके. उनका यह छोटा सा जीवन पेशवा शासनकाल के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा.
सदाशिव राव के नेतृत्व में भले ही मराठा फ़ौज को हार का सामना करना पड़ा लेकिन उनकी बहादुरी की गाथा आज भी हर कोई सुनाता है.
सदाशिव राव का बचपन
सदाशिव राव का जन्म 4 अगस्त 1730 को हुआ था. जब वो कुछ ही महीनों के थे तो उनकी मां का निधन का हो गया था और फिर दस साल की उम्र में उनके सिर से पिता का साया भी उठ गया.
सदाशिव राव का पालन उनकी दादी राधाबाई ने किया. रामचंद्र बाबा उनके गुरु थे.
उमाबाई सदाशिव राव की पहली पत्नी थी. दो बच्चों के जन्म के बाद उनकी मृत्यु भी जल्दी ही गई थी. इसके बाद सदाशिव राव ने पार्वतीबाई से शादी की, जिससे उन्हें कोई संतान नहीं हुई.
सदाशिव राव ने प्रशासन और राजनीति की बुनियादी शिक्षा सतारा में छत्रपति साहु की देखरेख में प्राप्त की. साल 1746 में उन्होंने कर्नाटक के तुंगभद्र दोआब की तरफ जाने वाली महदजीपंत की सेना में उनका साथ दिया.
सदाशिव राव ने अपना पहला युद्ध अजरा में जीता और वहां उन्होंने बदादुर भोंड किले पर फतह हासिल की.
वो तुंगभद्र की तरफ भी गए उन्होंने अपने पराक्रम से सवनूर के नवाब देसाई को चकित कर दिया. इस अभियान के तहत सदाशिवराव ने 35 विभागों पर कब्ज़ा किया जिसमें किट्टूर, मोकक, परसगढ़ और यडवाड शामिल हैं.
साल 1750 में सदाशिव को छत्रपति राजाराम का कमांडर नियुक्त किया गया. उसी साल कोल्हापुर के छत्रपति ने उन्हें पेशवा और जागिरदारी का कार्यभार भी सौंप दिया.
साल 1759 में उन्होंने उडगिर के निज़ाम के ख़िलाफ़ सफलतापूर्व जंग लड़ी. इस युद्ध ने उनके सैन्य शासन को और सुदृढता प्रदान की.
सदाशिव राव को आधुनिक युद्ध हथियारों की समझ थी, इसलिए उन्होंने इब्राहिम ख़ान गार्दी को अपनी सेना में शामिल किया.
सदाशिव जानते थे कि इब्राहिम ख़ान तोप चलाने में काफी निपुण हैं, उडगिर के युद्ध में 3 फ़रवरी 1760 को मराठा सैनिकों ने निज़ाम को परास्त कर बुरहानपुर, औरंगाबाद और बीजापुर के इलाकों को अपने कब्ज़े में कर लिया था.
उत्तर की ओर चढ़ाई
उडगिर में सफ़लता प्राप्त करने के बाद, पेशवा की सेना उत्तर की तरफ बढ़ने के लिए तैयार थी. रघुनाथ राव ने पेशवा शासन पर 80 लाख रुपए का अतिरिक्त कर्ज का बोझ डाल दिया था इसलिए यह फ़ैसला किया गया कि अब उत्तर की तरफ होने वाले अभियान में रघुनाथराव की जगह सदाशिव राव सेना का नेतृत्व करेंगे.
इस अभियान में विश्वास राव भी उनके साथ गए.
इस अभियान के लिए मराठा फ़ौज 50 हज़ार सैनिक और छह लाख रुपयों के साथ आगे बढ़ी.
सदाशिव राव को बताया गया था कि अहमद शाह अब्दाली मुग़ल नहीं है और वो तुर्की के घोड़ों के साथ चलते हैं. साथ ही उन्हें गुरिल्ला युद्ध तकनीक भी आती है.
पानीपत युद्ध से पहले की तैयारी
इतिहास के जानकारी और लेखक डॉ. उदय कुलकर्णी बताते हैं, ''सदाशिवराव को शायद शुजा, राजपूत, सूरजमल जाट से मदद मिल जाती लेकिन अब्दाली नजीबुदोल्ला, बंगश और बरेली के रोहिल्लाओं से मदद मिल रही थी. दोनों के बीच जो पत्र लिखे गए उनमें युद्ध को टालने की बातें थीं. जयपुर और जोधपुर के राजाओं ने अब्दाली का साथ देने का फ़ैसला किया. इसके साथ ही कई राजाओं को लगा कि अगर सदाशिव राव जीत गए तो वो उन पर अपना अधिकार जमा लेंगे इसलिए ये तमाम राजा भी अब्दाली के साथ चले गए.''
उदय कुलकर्णी बताते हैं, ''भाउ ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया था, एक तरह से उस समय मराठा भारत पर शासन कर रहे थे. पानीपत के युद्ध में मराठा और अब्दाली दोनों की सेनाएं अपने साथ अपने परिवालों को भी लेकर चल रहे थे. इसके अलावा कुछ श्रद्धालु भी थे जो पवित्रस्थलों की यात्रा के मकसद से दोनों सेनाओं के साथ शामिल थे. उन दिनों में आमतौर पर श्रद्धालु सेनाओं के साथ ही तीर्थयात्रा करते थे, जिससे लुटेरों का ख़तरा कम हो जाता था.''
कैसे हुआ पानीपत का युद्ध?
31 अक्टूबर 1760 को मराठा और अब्दाली एक दूसरे के आमने-सामने थे. लेकिन जिस अंदाज़ में मराठाओं ने अपनी सेना को खड़ा किया था उससे अब्दाली को यह आभास हो गया कि बहुत जल्दी ही उनकी सेना मराठा फ़ौज के सामने घुटने टेक सकती है.
एक तरफ मराठा फ़ौज ने अब्दाली का अफ़ग़ानिस्तान लौटने का रास्ता रोक दिया था, तो वहीं अब्दाली की सेना ने भी मराठाओं के दिल्ली लौटने का रास्ते को बंद कर दिया था.
7 दिसंबर को हुई लड़ाई में सदाशिवराव के करीबी बलवंत राव मेहदाले की मौत हो गई.
गोविंदराव बुंदेले दिल्ली के रास्ते मराठा सेना को हथियाल मुहैया करवा रहे थे. अब्दाली ने बुंदेले को मार गिराया. इस वजह से 13 जनवरी के बाद मराठा सेना को खाने की आपूर्ति समाप्त हो गई.
अब्दाली दोबारा अफ़गानिस्तान लौटना चाहते थे लेकिन मराठाओं ने अपनी सेना को चतुर्भुज प्रारूप में मैदान पर तैनात किया. बाईं तरफ और मध्य में मौजूद सैनिकों ने अब्दाली को रोके रखा. दोपहर तक मराठा सैनिक दुश्मन फ़ौज को पीछे धकेलने में कामयाब रहे.
लेकिन चार घंटे बाद अब्दाली दोगुनी ताकत से मराठाओं पर टूट पड़े और उन्होंने मराठा फ़ौज पर आक्रमण कर दिया. थके हुए मराठा सैनिक इस हमले के लिए तैयार नहीं थे.
जिस युद्ध को मराठा जीतने की कगार पर थे उसे वो हार गए. करीब 50 हज़ार मराठा फ़ौजियों की इस युद्ध में मौत हुई. लेकिन असैन्य लोगों को मिला लें तो मरने वालों की संख्या एक लाख तक पहुंच जाती है.
उदय कुलकर्णी कहते हैं कि सदाशिव राव ने सोच समझकर ही पानीपत का युद्ध लड़ा था.
वो बताते हैं, ''मराठा सैनिक दोपहर तक अब्दाली की फ़ौज को उनके घुटनों पर ले आए थे. लेकिन अब्दाली ने अपने सैनिकों को एकजुट किया और फिर जवाबी हमला बोला. जिसका सामना थके हुए मराठा नहीं कर सके.''
ठंड का असर
पानीपत का युद्ध जनवरी के महीने में लड़ा गया जब वहां कड़ाके की ठंड पड़ती है. मराठा सेना के पास इस ठंड से बचने के लिए पर्याप्त गरम कपड़े भी नहीं थे.
इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है कि अब्दाली के फ़ौजियों के पास चमड़े के कोट थे. उस युद्ध में सूर्य की भूमिका भी बहुत अहम हो गई थी.
इतिहासकार पंडुरंग बालकवेडे कहते हैं जैसे-जैसे ठंड बढ़ती जाती मराठा सैनिकों का जोश भी ठंडा पड़ता जाता.
जब विश्वास राव की मृत्यु हो गई तो उसके बाद सदाशिव राव हाथी से उतरकर घोड़े पर आ गए. जब मराठा सैनिकों ने सदाशिव राव के हाथी को खाली देखा तो यह ख़बर फ़ैल गई कि सदाशिवराव की भी मौत हो गई है, इस ख़बर ने सभी सैनिकों के हौसले पस्त कर दिए.
1734 में हुए अहमदिया समझौते के मुताबिक दिल्ली के बादशाह की हिफ़ाज़त करना मराठाओं की ज़िम्मेदारी थी. इसके बदले में मराठाओं को उस इलाके में भूमि कर एकत्रित करने का अधिकार मिला था.
मराठाओं से पहले यह अधिकार राजपूतों के पास था. जब राजपूतों से कर वसूलने का अधिकार वापिस ले लिया गया तो वे भी मराठाओं के ख़िलाफ़ खड़े हो गए. इसके साथ ही अजमेर और आगरा के जाटों ने भी मराठाओं की मदद नहीं की.
क्या पानीपत का युद्ध टल सकता था?
इतिहास में मौजूद दस्तावेज़ और चिट्ठियां यह बतातीं हैं कि पानीपत के युद्ध को टाला जा सकता था.
दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विषय के प्रोफ़ेसर अनिरुद्ध देशपांडे कहते हैं, ''उत्तर की तरफ चढ़ाई से पहले भाउसाहेब बाखर के कुछ नोट्स मिलते हैं. इसमें बताया गया है कि गोपिकाबाई को यह डर था कि अगर सदाशिवराव उत्तर की चढ़ाई में सफल हो जाते हैं तो वे अपना खुद का साम्राज्य स्थापित कर लेंगे. इसलिए विश्वासराव भी उनके साथ चलने के लिए तैयार हुए. उनके पास बड़ी सेना तो थी लेकिन पर्याप्त पैसा नहीं था.''
''सदाशिव राव ने दक्षिण में सफलता पाई थी. लेकिन उनके पास उत्तरी भू-भाग का कोई अनुभव नहीं थी. दूसरी तरफ अहमद शाह अब्दाली एक जाना-माना योद्धा था. उनके पास युद्ध का अच्छा-खासा अनुभव था. सदाशिव राव के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने उन्हें युद्ध को टालने की सलाह दी थी. यहां तक की अब्दाली ने भी खुद इसकी पेशकश की थी. सदाशिवराव को यह भी बताया गया था कि कुछ वक़्त बाद खाने की आपूर्ति प्रभावित होगी जिससे सैनिकों और जानवरों की देखभाल करना मुश्किल हो जाएगा.''
देशपांडे बताते हैं, ''कुछ लोगों ने सदाशिव राव को यह सलाह भी दी कि अगर वो अफ़ग़ान सैनिकों को मार भी डालेंगे तब भी वो दत्ताजी को वापस हासिल नहीं कर सकते. इसलिए अगर वो सैनिकों को मारने की जगह उनके पकड़ लेंगे तो उनके बदले में कोई दूसरी चीज़ ज़रूर मांग सकते हैं. वरिष्ठ अधिकारियों ने सदाशिवराव को यह भी बताया था कि कुछ भी हो जाए अहमद शाह अब्दाली वापस अफ़ग़ानिस्तान ज़रूर जाना चाहेगा.''
पानीपत युद्ध में क्या-क्या गंवाया?
पानीपत की पूरी लड़ाई को इन शब्दों में वर्णित किया जाता है, 'दो मोती खो गए, लाखों चूड़ियां टूट गईं, 27 मोहरीं गुम हो गईं और अनगिनत सिक्के बर्बाद हो गए.'
इसका अर्थ कुछ इस तरह है कि दो मोती- सदाशिवराव भाउ और विश्वासरा भाउ, 27 मोहरें- 27 मुखिया और अनगिनत सैनिक.
पानीपत का युद्ध हारने के बाद भी मराठाओं ने उत्तर में अपना शासन कायम रखा. लेकिन दक्खन प्रांत के नेतृत्व में एक खालीपन पैदा हो गया. मराठी इनसाइक्लोपीडिया में पानीपत युद्ध के परिणामों के बारे में लिखा गया है.
मराठी इनसाइक्लोपीडिया के मुताबिक, ''पानीपत का युद्ध मराठी इतिहास में एक त्रासदी के समान है. मराठा साम्राज्य की पुणे में रहकर हिंदुस्तान की राजनीति चलाते रहने की नीति लगभग आधी सदी तक कामयाब रही. लेकिन इसके बाद अब्दाली और रोहिल्ला की आंधी ने मराठा साम्राज्य को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचा दिया.''
''पानीपत के युद्ध में हुई हार के ज़ख्म मराठाओं को कई पीढ़ियों तक परेशान करते रहे. मराठाओं का भगवा ध्वज सुदूर पूर्व में खूब लहरा रहा था लेकिन इस युद्ध ने उन्हें चंबल नदी के तट पर रोक दिया. इसके बाद दक्षिण में भी निज़ाम और हैदर ने मराठाओं के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलना शुरू कर दिया. उत्तर में राजस्थान, बुंदेलखंड और माल्वा के छोटे-बड़े राजा मराठाओं के ख़िलाफ़ विद्रोह करने लगे.''
''मराठाओं का खौफ़ धीरे-धीरे ख़त्म होने लगा था. पानीपत युद्ध के लगभग 56 साल बाद तक मराठाओं का शासन रहा. लेकिन उनकी नीति पहले जैसी आक्रामक नहीं रह गई थी.''
अब्दाली ने की मराठा सेना कि तारीफ़
डॉ. उदय कुलकर्णी बताते हैं कि अहमद शाह अब्दाली ने एक पत्र में मराठा सेना की प्रशंसा की थी.
अब्दाली ने यह पत्र युद्ध के बाद अपने कुछ साथियों को लिखा था, जिसमें उन्होंने लिखा था, ''वो कोई सामान्य लोग सिपाही नहीं थे. मराठा फ़ौजियों ने ज़बरदस्त पराक्रम दिखाया. किसी दूसरी नस्ल के फ़ौजी ऐसी हिम्मत नहीं दिखा सकते. दोनों ही तरफ से बेहद हिम्मती सैनिक लड़े.''
''उन्होंने अपनी ज़िंदगी की आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ी. वो अपनी मातृभूमि से दूर थे, उनके पास खाने की कमी थी लेकिन फिर भी उनके शौर्य में किसी तरह की कमी नहीं आई.''
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Could Sadashiv Rao avoid the battle of Panipat?
Sadashivrao Bhau is recognized in history as a man who started the modern war.
He carried forward the spirit of nationalism and fought a war in Panipat, several kilometers away from his motherland, in which he displayed immense power.
The Afghan Emperor Ahmad Shah Abdali defeated the Maratha army in the Third Battle of Panipat. Many Maratha soldiers lost their lives in that war. This defeat also challenged the rapidly increasing domination of the Maratha empire.
Chimaji Appa's son Sadashiv Rao could barely live for 30 years. His short life was very important for the Peshwa reign.
Even though the Maratha army suffered defeat under the leadership of Sadashiv Rao, the story of his bravery is still recited by everyone.
Childhood of Sadashiv Rao
Sadashiv Rao was born on 4 August 1730. When he was only a few months, his mother had passed away and then at the age of ten, the shadow of his father also arose.
Sadashiv Rao was followed by his grandmother Radhabai. Ramchandra Baba was his mentor.
Umabai was the first wife of Sadashiv Rao. He also died soon after the birth of two children. After this Sadashiv Rao married Parvatibai, due to which they had no children.
Sadashiv Rao received basic education in administration and politics under the supervision of Chhatrapati Sahu in Satara. In the year 1746, he supported Mahdjipant's army going towards Tungabhadra Doab in Karnataka.
Sadashiv Rao won his first war in Azra and won the Badadur Bhond Fort there.
He also went towards Tungabhadra and he surprised Nawab Desai of Savanur with his might. As part of this campaign, Sadashivrao captured 35 departments, including Kittur, Mokak, Parasgarh and Yadwad.
In the year 1750, Sadasiva was appointed Commander of Chhatrapati Rajaram. In the same year, Chhatrapati of Kolhapur also handed him the charge of Peshwa and Jagirdari.
In the year 1759, he fought a successful war against the Nizam of Udgir. This war further strengthened his military rule.
Sadashiv Rao had the understanding of modern war weapons, so he included Ibrahim Khan Gardi in his army.
Sadashiv knew that Ibrahim Khan was quite adept at gunning, the Maratha troops defeated the Nizam on 3 February 1760 in the Battle of Udgir and captured the territories of Burhanpur, Aurangabad and Bijapur.
Climb north
After achieving success in Udgir, the Peshwa army was ready to move north. Raghunath Rao had put an additional debt of 80 lakh rupees on the Peshwa regime, so it was decided that Sadashiv Rao would lead the army instead of Raghunathrao in the northward campaign.
Vishwas Rao also accompanied him in this campaign.
The Maratha army went ahead with 50 thousand soldiers and six lakh rupees for this campaign.
Sadashiv Rao was told that Ahmed Shah Abdali is not a Mughal and he walks with Turkish horses. In addition, they also know guerrilla warfare techniques.
Preparations before Panipat war
History informer and author Dr. Uday Kulkarni says, "Sadashivrao might have got help from Shuja, Rajput, Surajmal Jat but was getting help from Rohillas of Abdali Najibodolla, Bangash and Bareilly. Among the letters written between the two, there were talk of postponing the war. The kings of Jaipur and Jodhpur decided to join Abdali. With this, many kings felt that if Sadashiv Rao won, he would collect his authority over them, so all these kings also went with Abdali.
Udaya Kulkarni says, "Bhau had captured Delhi, in a way Marathas were ruling India at that time. In the battle of Panipat, both the Maratha and Abdali forces were carrying their families with them. Apart from this, there were some devotees who were involved with both the armies for the purpose of visiting the holy places. In those days, devotees usually performed pilgrimage along with the armies, thereby reducing the risk of robbers.
How did the battle of Panipat happen?
On 31 October 1760, the Marathas and Abdali faced each other. But the way in which the Marathas raised their army, Abdali realized that very soon his army could kneel in front of the Maratha army.
On one hand, the Maratha army had blocked Abdali's way of returning to Afghanistan, while on the other hand, Abdali's army had also blocked the way for the Marathas to return to Delhi.
On December 7, Balwant Rao Mehdale, close to Sadashivrao, died in the fight.
Govindrao Bundale was providing handguns to the Maratha army through Delhi. Abdali killed Bundela. Due to this, the supply of food to the Maratha army ceased after January 13.
Abdali wanted to return to Afghanistan again, but the Marathas stationed their army in a quadrilateral format. The soldiers on the left and in the middle kept Abdali. By noon, the Maratha soldiers managed to push the enemy army back.
But after four hours, Abdali broke down on the Marathas with double strength and attacked the Maratha army. Tired Maratha soldiers were not ready for this attack.
He lost the war which the Marathas were on the verge of winning. About 50 thousand Maratha soldiers died in this war. But if the civilians are included, then the death toll reaches one lakh.
Uday Kulkarni says that Sadashiv Rao had fought the war of Panipat with thought.
He explains, "Maratha soldiers had brought Abdali's army to their knees by noon. But Abdali united his troops and then retaliated. The tired Marathas could not face it.
Cold effect
The battle of Panipat was fought in the month of January when there is a cold winter. The Maratha army did not even have enough warm clothes to survive this cold.
If we look at the history, it is known that Abdali's soldiers had leather coats. The role of Surya had also become very important in that war.
Historian Pandurang Balakwade says that as the cold increases, the enthusiasm of Maratha soldiers also gets colder.
When Vishwas Rao died, after that Sadashiv Rao descended from the elephant and came on a horse. When the Maratha soldiers saw the elephant of Sadashiv Rao empty, the news spread that Sadashivrao was also killed, this news defeated all the soldiers.
According to the Ahmadiyya Pact in 1734, it was the responsibility of the Marathas to protect the emperor of Delhi. In return, the Marathas got the right to collect land tax in that area.
Prior to Marathas, this right was with the Rajputs. When the right to collect tax was withdrawn from the Rajputs, they also stood up against the Marathas. Along with this, the Jats of Ajmer and Agra also did not help the Marathas.
राष्ट्रीय आंदोलन की महत्वपूर्ण घटनाएं
Could the battle of Panipat be averted?
Documents and letters in history suggest that the battle of Panipat could have been avoided.
Anirudh Deshpande, professor of history at the University of Delhi, says, "Some notes of Bhausaheb Bakhar are found before climbing north." It has been told that Gopikabai feared that if Sadashivrao succeeded in climbing north, he would establish his own empire. So Vishwasrao also agreed to go with him. He had a large army but did not have enough money.
Sadashiv Rao was successful in the South. But he did not have any experience of northern terrain. Ahmed Shah Abdali, on the other hand, was a well-known warrior. He had a good war experience. Some senior officers of Sadashiv Rao advised him to avoid war. Even Abdali himself offered it. Sadashivrao was also told that after some time the supply of food will be affected which will make it difficult to take care of soldiers and animals.
Deshpande says, "Some people even advised Sadashiv Rao that even if they kill Afghan soldiers, they cannot get Dattaji back. Therefore, if they catch the soldiers instead of killing them, then they can definitely ask for something else in exchange for them. Senior officials had also told Sadashivrao that Ahmed Shah Abdali would definitely like to go back to Afghanistan if anything happens.
What were lost in the battle of Panipat?
The whole battle of Panipat is described in these words, "Two pearls were lost, millions of bangles were broken, 27 pieces were lost and countless coins were ruined."
Its meaning is such that two pearls - Sadashivrao Bhau and Vishwasra Bhau, 27 pieces - 27 heads and countless soldiers.
Even after losing the battle of Panipat, the Marathas maintained their rule in the north. But an emptiness arose under the leadership of the Deccan province. The results of the Panipat war have been written in the Marathi Encyclopedia.
According to the Marathi Encyclopedia, "The Battle of Panipat is like a tragedy in Marathi history." The Maratha Empire's policy of staying in Pune and running the politics of India was successful for almost half a century. But after this, the storm of Abdali and Rohilla caused great damage to the Maratha Empire. ''
"The wounds of defeat in the battle of Panipat kept troubling the Marathas for many generations. The saffron flag of the Marathas was waving heavily in the Far East, but this war stopped them on the banks of the Chambal River. After this, Nizam and Hyder also started opening a front against the Marathas. In the north, big and small kings of Rajasthan, Bundelkhand and Malwa started rebelling against the Marathas. ''
The fear of the Marathas was slowly ending. The Marathas ruled till about 56 years after the Panipat war. But his policy was not as aggressive as before.
कलिंग की लड़ाई Battle of Kalinga
Abdali praised the Maratha army
Dr. Uday Kulkarni says that Ahmed Shah Abdali had praised the Maratha army in a letter.
Abdali wrote this letter to some of his comrades after the war, in which he wrote, "He was not a common man soldier. Maratha troops showed tremendous power. No other breed of army can show such courage. Extremely fierce soldiers fought from both sides.
"He fought till the last breath of his life." He was away from his motherland, he had a shortage of food but still there was no shortage in his valor.