और अक्षय कीर्ति का अधिकारी भी बन सकता है। किंतु, इस वाणी में स्खलन या विकृति आने पर मनुष्य निंदा और अपयश कि विभागीय बनता है। यही नहीं आ वांछनीय वाणी, उसके पतन का भी कारण बन सकती है। अतः वाणी या भाषा का प्रयोग बहुत सोच-विचार कर करना चाहिए। इसलिए राजकीय कार्यों में पूर्ण सोच-विचार के बाद उपयुक्त भाषा का प्रयोग करने की परंपरा रही है।
राज्य प्रशासन की भाषा को राज्य भाषा कहते हैं। इसके माध्यम से सभी प्रशासनिक कार्य संपन्न किए जाते हैं। यूनेस्को के विशेषज्ञों के अनुसार 'उस भाषा को राज्य भाषा कहते हैं जो सरकारी कामकाज के लिए स्वीकार की गई हो और जो शासन तथा जनता के बीच आपसी संपर्क के काम आती हो'। जबसे प्रशासन की परंपरा प्रचलित हुई है तभी से राजभाषा का प्रयोग भी किया जा रहा है। प्राचीन काल में भारत में संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश आदि भाषाओं का राजभाषा के रूप में प्रयोग होता था। राजपूत काल में तत्कालीन भाषा हिंदी का प्रयोग राजकाज में किया जाता था। किंतु भारतवर्ष में मुसलमानों का अधिपत्य स्थापित हो जाने के बाद धीरे-धीरे हिंदी का स्थान फारसी और अरबी भाषाओं ने ले लिया था। इस बीच में भी राजपूत नरेशों के राज्य क्षेत्रों में हिंदी का प्रयोग बराबर प्रचलित रहा। मराठों के राज में भी हिंदी का प्रयोग किया जाता था। आज भी इन राजाओं के दरबारों से हिंदी अथवा हिंदी-फारसी द्विभाषीक रूप में जारी किए गए फरमान बड़ी संख्या में उपलब्ध है। इस बात का द्योतक है कि हिंदी राजकाज करने के लिए सदा ही वह सक्षम रही है। किंतु केंद्रीय शक्ति के मुसलमान शासकों के हाथ में चले जाने के कारण उसे वह अवसर प्राप्त नहीं हुआ, जिससे सभी क्षेत्रों में उसकी क्षमता एवं सामर्थ्य का पूर्ण विकास हो पाता।
अंग्रेजी ने अपने शासनकाल में तत्कालीन प्रचलित राजभाषा फारसी को ही प्रश्रय दिया था। परिणाम स्वरुप भारत के आजाद होने के कुछ समय बाद तक भी फ़ारसी भारत के अधिकांश भागों में कचरिया की भाषा बनी रही। इस बीच 1855 में लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी को भारत की शिक्षा और प्रशासन की भाषा के रूप में स्थापित कर दिया था। धीरे-धीरे वह न केवल पूर्णतया भारतीय प्रशासन की भाषा बन गई बल्कि शिक्षा, वाणिज्य, व्यापार तथा उद्योग धंधों की भाषा के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गई। इतना ही नहीं वह भारत के शिक्षित वर्ग के व्यवहार की भी भाषा बन गई। फिर भी अंग्रेजी शासक यह महसूस करते रहे कि भारत की भाषाओं को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता अतः उन्होंने हिंदीभाषी प्रदेशों में हिंदी को और अन्य प्रदेशों में वहां की भाषाओं को प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम बनाया। इस श्री गणेश का शुभ परिणाम यह हुआ कि हिंदी और भारतीय भाषाएं विकसित होने लगी और वे उच्च शिक्षा का माध्यम बनी। इतना ही नहीं स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने भारतीय भाषाओं और विशेषकर हिंदी को राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा के रूप में प्रचारित करने का प्रयास प्रारंभ किया। इस राष्ट्रीय जागरण के परिणाम स्वरुप हिंदी का उत्तरोतर प्रसार होने लगा और यह मत व्यक्त किया जाने लगा कि देश के अधिकांश लोगों की बोली होने के कारण हिंदी को भी भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए। देश के कोने-कोने से अनेक हिंदी भाषी राष्ट्रीय नेताओं ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए।
महात्मा गांधी ने एक बार यह विचार व्यक्त किया था कि राष्ट्रभाषा बनने के लिए किसी भाषा में कुछ महत्वपूर्ण गुण होने आवश्यक होते हैं जैसे कि-
1.उसे सरकारी अधिकारी आसानी से सीख सकें,
2.वह समस्त भारत में धार्मिक आर्थिक और राजनीतिक संपर्क के माध्यम के रूप में प्रयोग के लिए सक्षम हो,
3.वह अधिकांश भारत वासियों द्वारा बोली जाती हो,
4.सारे देश को उसे सीखने में आसानी हो,
5.ऐसी भाषा को चुनते समय क्षणिक हितों पर ध्यान ना दिया जाए।
उनका विचार था कि भारतीय भाषाओं में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसमें उपर्युक्त सभी गुण मौजूद है। महात्मा गांधी तथा अन्य नेताओं के समर्थन का परिणाम यह हुआ कि जब भारतीय संविधान सभा में संघ सरकार की राजभाषा निश्चित करने का प्रश्न आया तो विशद विचार मंथन के बाद 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा घोषित किया गया। भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ और तभी से देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी विधिवत भारत संघ की राजभाषा है।
किसी भी स्वाधीन देश के लिए जो महत्व उसके राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का है वही उसकी राजभाषा का है। प्रजातांत्रिक देश में जनता और सरकार के बीच भाषा की दीवार नहीं होनी चाहिए और शासन का काम जनता की भाषा में किया जाना चाहिए। जब तक विदेशी भाषा में शासन होता रहेगा, तब तक कोई देश सही अर्थों में स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा में ही स्पष्टता और सरलता से अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकता है। नूतन विचारों का स्पंदन और आत्मा की अभिव्यक्ति, मातृभाषा में ही संभव है। राजभाषा देश के भिन्न-भिन्न भागों को एक सूत्र में बांधने का कार्य कराती है। इसके माध्यम से जनता न केवल अपने देश की नीतियों और प्रशासन को भलीभांति समझ सकती है बल्कि उसमें स्वयं भी भाग ले सकती है। प्रजातंत्र की सफलता के लिए ऐसी व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है। विश्व के सभी स्वतंत्र देश और नवोदित राष्ट्रों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि उनका उत्थान, उनकी अपनी भाषाओं के माध्यम से ही संभव है।रूस, जापान, जर्मनी, आदि सभी राष्ट्र इसके प्रमाण है। भारतीय संविधान सभा इस तथ्य से पूर्णतया परिचित थी। इसलिए यद्यपि अंग्रेजी के समर्थकों ने उसकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति और समृद्धि की बड़ी वकालत की, राष्ट्रीय नेताओं ने देश के बहुसंख्यक वर्ग द्वारा बोली जाने वाली और देश के अधिकांश भाग में समझी जाने वाली भाषा हिंदी को ही भारत संघ की राजभाषा बनाया।
हिंदी के महत्व को बताने और इसके प्रचार-प्रसार के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अनुरोध पर 1953 से प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है।
संघ की भाषा:
संविधान के भाग XVII में अनुच्छेद 343 से 351 राजभाषा से संबंधित है। इन के उपबंधों को 4 शिर्षकों में विभाजित किया गया है-
1.संघ की भाषा
2.क्षेत्रीय भाषाएं
3.न्यायपालिका और
4.विधि के पाठ भाषा एवं अन्य विशेष निर्देशों की भाषा।
संघ की भाषा के संबंध में संविधान में निम्नलिखित उपबंध है:
1.देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी संघ की है परंतु संघ द्वारा आधिकारिक रूप से प्रयोग की जाने वाली संख्याओं का रूप अंतरराष्ट्रीय होगा, न कि देवनागरी।
2.हालांकि संविधान प्रारंभ होने के 15 वर्षों (1950 से 1965 तक) अंग्रेजी का प्रयोग आधिकारिक रूप उन प्रयोजनों के लिए जारी रहेगा जिनके लिए 1950 से पुर्व इसका उपयोग में होता था।
3.15 वर्षों के उपरांत भी संघ प्रयोजन विशेष के लिए अंग्रेजी का प्रयोग कर सकता है।
4.संविधान लागू होने के 5 वर्ष पश्चात व पुनः 10 वर्ष के पश्चात राष्ट्रपति एक आयोग की स्थापना करेगा जो हिंदी भाषा प्रगामी प्रयोग के संबंध में, अंग्रेजी के प्रयोग को सीमित करने एवं अन्य संबंधित मामलों में सिफारिश करेगा।
5.आयोग की सिफारिशों के अध्ययन व राष्ट्रपति को इस संबंध में अपने विचार देने के लिए एक संसदीय समिति गठित की जाएगी।
भारतीय संविधान अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी एवं लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त अंको का रूप भारतीय अंकों का अंतर राष्ट्रीय स्वरूप (अर्थात 1,2,3 आदि) होगा
संसद का कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है। परंतु राज्यसभा के सभापति महोदय या लोकसभा के अध्यक्ष महोदय विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं।
संदर्भ: 1.Bharat discovery.org राजभाषा के रूप में हिंदी का विकास, महत्व तथा प्रकाश की दिशाएं -लेखक श्री जय नारायण तिवारी
2.भारत की राजव्यवस्था- लेखक एम लक्ष्मीकांत
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